माईलोगिन मन के मुँह ह अबड़ खजुवाथे कहिथें। एकरे सेती जब देखबे तब वोमन बिन सोचे-समझे चटर-पटर करत रहिथें। हमरो पारा म एक झन अइसने चटरही हे, फेर ये चटरही ह आजकल ‘कवयित्री’ होगे हे। बने मोठ-डाँठ हे तेकर सेती लोगन वोला ‘कवयित्री धोंधो बाई’ कहिथें। वइसे नांव तो वोकर ‘मीता’ हे, फेर ‘गीता’ ह जइसे गुरतुर नइ होवय न, वइसने ‘मीता’ ह घलो मीठ नइए। एकदम करू तेमा लीम चढ़े वाला। वइसे तो माईलोगिन होना ह अपन आप म करू-कस्सा ल मंदरस चुपर के परोसने वाली होना होथे, तेमा फेर कवयित्री लहुट जाना ह सिरिफ करू-कस्सा भर ल नहीं, भलुक जहर-महुरा ल मंदरस चुपर के परोसने वाली होना होथे।
वोला कवि सम्मेलन मन म जब ले जाए के चस्का लगे हे, तबले वोहा कवि मनला लुढ़ारे अउ ठगे के चालू कर दिए हे। एक दिन अपनेच ह मोला बतावत राहय- ‘का बतावौं सर, अभी तो मोला चारों मुड़ा बगरना हे कहिके ए मन ल ठगत रहिथौं। मोर आदमी ‘मेहलाबानी’ के हावय कहिके एकर मन जगा ‘जाल’ फेंकत रहिथौं। अउ जब वोकर मन के माध्यम ले एकाद-दू मंच मिलगे, अउ संग म दू-चार जगा घूमे-फिरे के खरचा ल वोमन उठा डारिन, तहाँ ले चल जा रे रोगहा तोर ले जादा मोर नांव हे कहिके दुत्कार देथौं।’
बाते-बात म महूँ पूछ परेंव- ‘फेर मंच मन म तो आदमी के नांव ले जादा रचना अउ प्रस्तुति ह मायने रखथे न?’
-‘कहाँ पाबे सर, आजकाल के आयोजक मन रूप-रंग अउ देंह-पाँव ल जादा देखथें। जेन जतका जादा फेशन करके रहिथे, वो वतके बड़े कवयित्री।’
-‘अच्छा…’ मैं बड़ा अचरज ले कहेंव।
-‘हाँ सर… मैं ह तो अपन गुरु के लिखे जेन किताब हे न, उही मनला कविता बानी के ढाल लेथौं अउ मंच म उही ल मेंचका बरोबर उदक-उदक के पढ़ देथौं। अरे ददा रे… तहां ले ताली बजइया मन के का कहिबे। नाचा म परी मनला मोंजरा दे खातिर बलाए बर जइसे सीटी ऊपर सीटी पारथें न, तइसने कस चारों मुड़ा ले इसारा कर- कर के ताली बजाथें।’
-‘अच्छा…’ मैं अचरज ले कहेंव अउ गुने लागेंव के लोगन मन के कवि सम्मेलन के पसंद ह अइसन कब ले होगे हे। हमन जब पहिली सुने ले जावन, त अपन भाखा-संस्कृति अउ अस्मिता के बात करइया, अपन गौरवपूर्ण इतिहास के चरचा करइया मन ल ‘ताली’ के सुवाद चीखे ले मिलय। फेर अब कइसे उल्टा होगे हे, कवयित्री मन के देंह-पाँव अउ सुंदरई म ‘ताली’ बजथे कहिथें। फेर इहू सुनथंव के ‘कवि सम्मेलन’ ह ‘कवि नाचा’ के रूप धर लिए हे। ‘नाचा’ म जइसे जोक्कड़ मन लोगन ल हंसाए बर अन्ते-तन्ते गोठियावत अउ मटकावत रहिथें, वइसने ‘कवि नाचा’ म कवि मन हा-हा, भक-भक वाला चुटकिला सुनावत रहिथें। अउ सुने ले मिलथे के ‘पद्मश्री’ ह घलोक अइसने मनला मिल जाथे कहिके।
कवयित्री मीता उर्फ धोंधो बाई ह मोला अन्ते-तन्ते गुनत देख के, हलावत कहिस- ‘सर…सर… कहाँ चल दे हस? तोला तो संपादक हे कहिथें सर, मोर कविता ल छाप देबे का?’
-‘कविता ल… अरे तैं कविता घलोक लिखथस… अभीच्चे तो काहत रेहेस के अपन गुरु के लिखे किताब मनला सुर म ढाल के पढ़थौं कहिके…?’
-‘त का होगे सर… उही ल तो आजकाल कविता कहिथें। जतका झन पत्र-पत्रिका छापथें, स्मारिका निकालथें, सबो झन तो उही मनला छापथें, त तैं ह काबर नइ छापबे सर…?’
-‘मोला दूसर मन ले कोनो लेना-देना नइए भई, के वोमन तोर ‘का’ जिनीस ल कविता मान के छापथें ते, फेर मोर जगा तो अइसन नइ चलय।’ काहत मैं वो तीर ले आगू बढ़ गेंव।
सुशील भोले
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Nice One
Biyang tak to thik he pher “personal touch ” thrkun jada hogis aise lagthe .rachna le jada rachanakar ujagar howat dikhis.
ye bata dhandho bai kon ye ….ek jhin charttar le milat he ……